आकोला(नवरतन जैन )
मेवाड़ में देवरो या देवालयों का इतिहास काफी पुराना है। यहां के शहर, गांव व नगरो में जगह जगह देवालय मिलेंगे जो जन आस्था केन्द्र है। इन देवालयों के अलग अलग नामों के साथ इतिहास व धार्मिक मान्यताएं जुडी हुई हैं। ऐसा ही एक देवरा आकोला में हैं लेकिन खास बात यह है कि इसके साथ, वाडी, शब्द लगता है और शायद क्षैत्र का यह ऐसा इकलौता देवरा है। आकोला कस्बे में शनिमहाराज चौराहे से कुछ ही दुरी पर खेडिया जाने वाले रास्ते पर यह देवरा स्थित है,जिसे वाडी वाला देवरा के नाम से जाना जाता है। कुछ दशक पहले तक इसे लोग भोपाजी की वाडी भी कहते थे। यह देवरा भी आकोला के सबसे पुराने जाने माने देवरों में से एक है। हाल ही के सालो में देवरा परिसर का कायाकल्प हुआं है। आकोला सहित कई अन्य स्थानों से जातरु यहां दर्शन करने व मन्नत मांगने यहां आते हैं। यहां धार्मिक व सामाजिक आदि कार्यक्रम होते रहते हैं। मंदिर में विभिन्न देव मूर्तियां है इनमें नाग देवता की कलात्मक मूर्ति भी है जो आकर्षक लगती है। दशकों पुराने इमली के पेड़ तले यह देवरा बना हुआ है। पुराने लोग बताते हैं कि इसे पहले भोपाजी की वाडी भी कहा जाता था।देवरे के आसपास काफी पेड़ पौधे फुलदार पौधे जिन पर विभिन्न तरह के फूल आते थे यहां होते थे। इसके अलावा यहां अडुचा के भी कई पौधे थे जिनके पत्तों का उपयोग कई बिमारियों के देशी इलाज़ में किया जाता था। काढा बनाया जाता है। अडूचा खांसी के लिए रामबाण औषधि है। आयुर्वेदिक में इसका इस्तेमाल होता है। जानकार लोग यहां अडूसा के पत्ते लेने आते थे। वर्तमान में यहां अडुचा के झाड़ नदारद है। देश के प्रसिद्ध इतिहासकार और आकोला के निवासी डॉ श्रीकृष्ण जुगनू जी का बचपन मे यहां आना होता था। उनके मन मे तब देवरे के साथ वाडी शब्द को लेकर जिज्ञासा हुई तो वह इतिहासकार की यात्रा में कदम आगे बढ़ाएं तब एक बार मेवाड़ की प्राचीन राजधानी रही माध्यमिका नगरी से मिले एक प्राचीन शिलालेख के अध्ययन में वाटिका शब्द का उल्लेख शिलालेख में मिला। बाद में उन्होंने इस पर शोध किया। उल्लेखनीय है कि माध्यमिका नगरी का इतिहास दो हजार वर्ष से भी अधिक पुराना है।
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चित्तौडगढ़