- डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू’
लोकसमुदाय का अपना लालित्य है और लोकजीवन की अपनी लालिमा। लोक के लोचन स्मृतियों का सुरमा आंजते हैं। लोक के कान सदियों के स्वर सुनते हैं और नाक को प्रिय गंध मिट्टी की सौरभ वाली होती है। लोक की अपनी लीला लहर और लज्जा, सज्जा के लहरिया हैं। कार्तिक की वेला उन विचित्रताओं को उभारती हैं।
धनतेरस जैसा पर्व लोक की पुरानी मान्यताओं में धरती के पूजन और मृतिका संग्रहण, संरक्षण का पर्व रहा है। मैंने कई बार देखा कि भूदेवी के प्रति सम्मान की परंपरा बहुत पुरानी है। वेदों में भी भूमिसूक्त आया है और पृथिवी से नाना प्रकार की अपेक्षाएं की गई हैं। भूमि भाग्य प्रदायक होती है, इसीलिए हम सब ही इसका समादर करते हैं, यह भूमि हमें उत्तमोत्तम धान्य प्रदान करती रहे :
सीते वन्दामहे त्वार्वाची सुभगे भव।
यथा न: सुमना असो यथा न: सुफला भुव:।। (अथर्ववेद 3, 17, 8 )
वैदिक मान्यताओं में लोकमान्यताओं के महत्व का यह अद्भुत समावेश है और लोक में हजारों साल पुरानी मान्यताओं का वह उजास आज भी बना हुआ है। वैदिक प्रार्थना में आया है कि हे पृथिवी तुम्हारा जो मध्यस्थान तथा सुगुप्त नाभिस्थान एवं तुम्हारे शरीर संबंधी जो पोषक अन्नादि रस पदार्थ हैं, उनमें हमें धारण करो और हमें शुद्ध करो –
यत्ते मध्यं पृथिवि रोहिणीं विश्वरूपां ध्रुवां भूमिं पृथिवीमिन्द्रगुप्ताम्। अजीतोSहतो अक्षतोSध्यष्ठां पृथिवीमहम्।। (अथर्ववेद 12, 1, 12)
पृथ्वी की मिट्टी को संगृहीत करते समय यह मंत्र पाठ करने की मान्यता है –
अश्वक्रांते रथक्रांते विष्णुक्रांते वसुन्धरे।
मृत्तिके हर मे पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम्।। (पद्मपुराण, सृष्टिखण्ड अ. 46)
ब्रह्मवैवर्तपुराण में विष्णुप्रोक्त पृथ्वीस्तोत्र में यह कहा है कि तुम मंगल आधार हो, मंगल के सर्वथा योग्य हो, मंगलदायिनी हो, सब मंगलमय पदार्थ तुम्हारा ही स्वरूप है, हे मंगलेश्वरी मुझे मंगल प्रदान करो –
मंगले मंगलाधारे मंगल्ये मंगलप्रदे।
मंगलार्थे मंगलेशे मंगलं देहि मे भवे।। (ब्रह्मवैवर्त., प्रकृतिखंड)
गांवों में महिलाएं मुंह अंधेरे उठकर पवित्र होकर थाल सजाती है। दीप जलाती है, जल का पात्र, खुरपी या कुदाल लिए घर से निकलती है और पीली मिट्टी वाली भूमि की पूजा करके उसका किंचित अंश अपने घर लेकर आती है। उसको घर के देव आलय में रखती हैं और इस तरह रत्नगर्भा, धन-धान्य देने वाली भूमि को सम्मान देती हैं। ऐसी प्रथा उन क्षेत्रों में विशेषकर बची हुई है जहां खदाने रही हैं। खदानों की खोज का श्रेय भी कदाचित स्त्रियों को रहा है।
हाथ पर जो रक्षासूत्र राखी के दिन बंधा होता है, उसको इसी संध्या को खोलकर दीपक की बाती बनाती हैं और उससे दीप जलाकर पशु स्थान में गाय-बैल आदि को दिखाती है, इसके पीछे भाव ये है कि वे स्वस्थ रहे और हल-लांगल आदि को हांकने में सहयोगी बने रहें –
शुनं वाहा: शुनं नर: शुनं कृषतु लांगलम्।
शुनं वरत्रा बध्यन्तां शुनमष्ट्रामुदिंगय।। (अथर्ववेद 3, 17, 6)
इसी कारण दीपोत्सव के दूसरे दिन बैलों का शृंगार करके उनको पूजन, दौडाने की परंपरा भी रही है। यह प्राचीन मान्यताओं का लौकिक रूप है, जिसे खेंखरा भी कहा जाता है। पराशर के कृषिशास्त्र, पांचरात्र संहिता, ईशान शिव गुरुदेव पद्धति आदि में इस प्रकार की मान्यताओं का जीवंत चित्रण मिलता है।
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धनतेरस स्वास्थ्य के देवता धन्वंतरि के प्रति सम्मान, रत्न व धातु जैसे धन धारक धरती के पूजन और अर्जित सम्पदा के संरक्षण भाव का परिचायक पर्व है… हमें स्वास्थ्य, समृद्धि और सृजन सौभाग्य सदैव सुलभ हों… इस मंगल पर्व पर विशेष मंगल कामनाएं
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चित्र सौजन्य : श्रीताराचंद