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सनातन वह दिव्य ज्ञान है जो मानव मात्र के आत्म कल्याण एवं वैश्विक मंगल के लिए परम आवश्यक हैः रासेश्वरी देवी

फतहनगर। नगर के केआरजी सभागार में चल रही आध्यात्मिक जीवन उपयोगी प्रवचन श्रृखंला के अन्तर्गत प्रमुख प्रचारिका रासेश्वरी देवी ने बतलाया कि वेद प्रणीत सनातन धर्म वह दिव्य ज्ञान है जो मानव मात्र के आत्म कल्याण एवं वैश्विक मंगल के लिए परम आवश्यक है। संसार के सुख की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया कि यह सुख वैसा ही है जैसा मृग मरीचिका। जिस प्रकार एक मृग रेगिस्तान में पानी के अभाव में भी पानी को देखकर उसकी ओर भागता जाता है पर वह उसे कभी प्राप्त नहीं कर पाता और प्यास से प्राण त्याग देता है। ठीक इसी प्रकार हम मृग रूपी मानव संसार रूपी रेगिस्तान के अंतर्गत सांसारिक वस्तुओं में सुख का अनुमान लगाकर उन्हें बटोरने में लगे हुए हैं परंतु उनसे कभी भी वास्तविक सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती है। कभी-कभी थोडे बहुत अल्पकालीन सुख का अनुभव अवश्य हो जाता हैं पर साथ में दुख का अनुभव भी करते है।ं माया के संसार में दुख से मुक्त होने और वास्तविक सुख को पाने का एकमात्र उपाय है एक वास्तविक संत सद्गुरु का जीवन में होना। गुरु के बिना तो सांसारिक विषयों का भी वास्तविक और पूर्ण ज्ञान असंभव है तो फिर भगवान संबंधी दिव्य ज्ञान को हम इधर-उधर से कैसे प्राप्त कर सकते हैं एक वास्तविक संत ही उस दिव्य ज्ञान से हम साधारण जीवों को लाभान्वित कर सकता है। उस ज्ञान को हमारे हृदय में स्थापित कर सकता है। गुरु की महत्ता को बतलाते हुए स्पष्ट किया कि वास्तविक संत एवं गुरु वही होता है जो श्रोत्रिय और ब्रह्मिनिष्ट हो अर्थात उसे समस्त धर्म शास्त्रों का वास्तविक ज्ञान हो तथा जिसने भगवान का साक्षात्कार कर लिया हो। ऐसे संत की वाणी अलौकिक तथा दिव्य होती है। हृदय को स्पर्श करने वाली होती है। हृदय में बैठ जाती है। उनके वचन धर्म क्षेत्र की विविध शंकाओं को दूर कर देते हैं। जिनके संग से ईश्वरीय प्रेम की अभिवृद्धि होती है। जिनका संग मन को सुकून और शांति प्रदान करता है, जिसके द्वारा बतलाई गई साधना मन के अनर्थ को नष्ट कर देती है एवं चित्त को शुद्ध कर उनमें ईश्वरीय गुणो के प्रति लगाव को बढ़ा देती है। जिनके संग से मन में ईश्वरीय गुणो का प्रभाव बढ़ाता जाता है। साथ ही संसार के समस्त उत्तरदायित्वों को अनासक्त भाव से ठीक-ठाक निभाते हुए बंधन मुक्त होकर कर्म करने एवं संसार एवं परमार्थ दोनों की उन्नति की ओर अग्रसर करता है और वास्तविक गुरु ही भगवत प्राप्ति के मार्ग को प्रशस्त करता है। शास्त्रों में भगवत प्राप्ति के तीन मार्ग बतलाए गए हैं कर्म ज्ञान एवं भक्ति कर्म के व्यक्त की व्याख्या करते हुए उनके तीन भाग कर्म ,अकर्म, विकर्म के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान की कर्म जिसके अंतर्गत कर्मकांड आते हैं जिसमें नित्य कर्म, नैमित्तिक कर्म ,काम्य कर्म ,प्रायश्चित कर्म आदि होते हैं विकर्मी जो भगवान संबंधी किसी प्रकार का कर्म नहीं करते हैं वे केवल शारिरिक व सांसारिक कर्म करते हैं, जिसमें शरीर से कर्म और मन का अटैचमेंट भगवान से हो वह कर्म योग होता है उसे अकर्म कहते है।

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