श्रीकृष्ण “जुगनू”
जीव और माया पर जो चाहे दार्शनिक विचार हो लेकिन लौकिक रूप से माया जीव की सहायक लगती है। यह माया मायां-बायां (महिलाएं) रचती है और वे अच्छे से जानती हैं कि बिन माया के कुछ भी संभव नहीं। माया के मूल में हमारे कृषि उत्पाद हैं। लोक की यही सुविचारित रीति बुद्धिमान के रचे श्लोकों के फेर में सदियों से फेरे खा रही है और हम माया को नागिन बताकर थाप दिए जा रहे हैं।विवाह के लोकाचारों में माया की रचना होती है। सृष्टि के प्रथम कला समुदाय के प्रतिनिधि कुम्हार के यहां से बाजे-गाजे के साथ मृण कलश लाए जाते हैं तब चार ‘माया माटले’ ( छोटे कलश) भी लाए जाते हैं। इनको सुवासिनी बहन-बेटी और बहू-वारी लेकर आती है। क्यों? इसके पीछे अनोखा सोच है।कोहबर या माया सदन में महिलाओं द्वारा इन माटलों में सबसे पहले धान्य भरा जाता है :1. अक्षत चावल,2. गेहूं का दलिया,3. अक्षत मूंग एवं4. गुड़ की डलियां।बाद में इन चारों ही माटलों में एक-एक सिक्का (चांदी का) डाला जाता है। इन चारों को ढँककर विघ्नहर्ता के सामने रखा जाता है। पांच-पांच सुहागिनें मिलकर अपने हाथ लगाती है। हो गई माया!यही माया है। जहां रची जाती है, वहां किसी सदस्य के आगमन, वृद्धि और बढ़ोत्तरी का ध्येय अथवा उद्देश्य होता है। इसके अलावा और कुछ नहीं। माया है भी क्या? बुद्धि और विवेकवानों ने माया प्रपंच के नाम से जाने क्या क्या नहीं रचा लेकिन नारी लोक सहज रूप से इस अर्थ को समझा सकता है। वह इस अर्थ में भी सहज है कि वह भगवान् है, भाग्यवान है और ईश्वर तक को गर्भ में धारण करता है : प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्मायया। (गीता ४, ६) इस माया की महिमा में गीत गाये जाते हैं : उठो-उठो माया , लपसी चोखा जीमो…।इसके साथ ही अन्य देवी देवताओं के आह्वानमूलक गीत भी गाये जाते हैं और कहा जाता है : माया आया, काम बनाया।