उदयपुर, 24 अगस्त। राजस्थान ललित कला अकादमी के पूर्व अध्यक्ष और नाद साधना इंस्टीट्यूट आॅफ इंडियन म्यूजिक एण्ड रिसर्च सेंटर, जयपुर के सचिव पद पर कार्यरत दुर्लभ सुरबहार वाद्य यंत्र के कलाकार डॉ. अश्विन एम.दलवी शनिवार को उदयपुर पहुंचे। वे कहते हैं कि कला-संस्कृति से ही किसी देश की वास्तविक पहचान है, इसका उदाहरण है कि यदि सितार में ‘चिकारी’ तार छेड़ दिया जाय तो कोई भी सहृदय व्यक्ति बता देगा कि यह तो हिन्दुस्तान के वाद्य की सरगम है।
शिल्पग्राम में आयोजित होने वाले ‘मल्हार’ कार्यक्रम में शिरकत करने पहुंचे डॉ. दलवी मूल रूप से सितार व सुरबहार के सिद्धहस्त वादक और म्यूजिक कंपोजर हैं। राजस्थान यूनिवर्सिटी के ललित कला संकाय से संगीत में एम.ए. और पीएचडी करने वाले डॉ. दलवी प्रदेश के ख्यातनाम तबला गुरु स्व.महेश दलवी के सुपुत्र हैं। सुरबहार प्रस्तुति की भावपूर्ण शैली के लिए ख्यातनाम डॉ. दलवी ने इटावा घराना से तालीम ली है। एम.एस. यूनिवर्सिटी बड़ौदा में संगीत के प्रोफेसर के पद पर कार्य कर चुके दलवी ने सुरबहार वाद्ययंत्र, संगीत और प्रदेश की संगीत विरासत पर खुलकर चर्चा की।
विज्ञान के विद्यार्थी और संगीत में बनाया कॅरियर:
विज्ञान के विद्यार्थी होते हुए भी संगीत की ओर जुड़ाव के बारे में बताते हुए डॉ.दलवी ने कहा कि उनके पिता महेश दलवी देश के प्रसिद्ध तबला वादक थे, इसीलिए संगीत से उनका पहला परिचय तबले के द्वारा हुआ। पिता के साथ वे तबला बजाते तो उनकी माता सितार बजाती थीं। सही मायनों में सितार पहली गुरु उनकी माँ थीं। विज्ञान के विद्यार्थी रूप में अध्ययन करने वाले और लॉन टेनिस के खिलाड़ी के रूप अपना शौक पूरा करने वाले डॉ. दलवी ने संगीत को कॅरियर के रूप में लेने के बारे में कभी नहीं सोचा। उन्होंने बताया कि उनके पिता कल्चरल एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत विदेश जाते रहते थे। ऐसे में बारहवीं तक की उनकी शिक्षा भारत से बाहर ही हुई। भारत आने के बाद उन्होंने महाराजा कॉलेज में दाखिला लिया। कालांतर में राजस्थान विश्वविद्यालय से सितार में ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन और फिर पीएचडी की। संगीत की सैद्धांतिक शिक्षा में माता-पिता से भरपूर सहयोग मिला। घर का माहौल आध्यात्मिक और संगीतमय होने के कारण उन्होंने प्रतिदिन 10 से 12 घंटे रियाज करते हुए अपनी कला-कौशल को निखारा।
…जब सुरबहार देखकर कस्तूरी मृग की एषणा पूरी हुई:
उन्होंने बताया कि संगीत में घरानेदार उच्च शिक्षा के लिए पिताजी ने इटावा घराने के विश्व प्रसिद्ध सितार वादक पंडित अरविन्द पारीख का शिष्यत्व ग्रहण करवाया। पंडित पारीख ने ही उन्हें पहले सितार वादन की और बाद में सुरबहार वादन की विधिवत शिक्षा दी। वे बताते हैं कि सितार वादन की शिक्षा लेने के बाद भी उन्हें कस्तूरी मृग की भांति अपने वादन में किसी चीज की कमी अखरती थी। वर्ष 2008 में एक दिन गुरु के घर में पड़े हुए सुरबहार वाद्ययंत्र को देखा और उसको बजाया तो लगा कि कस्तूरी मृग को अपनी कस्तूरी प्राप्त हो गई। बस फिर क्या था, गुरु से निवेदन किया कि सुरबहार सीखना है। आरंभ में तो गुरु ने सुरबहार बजाने को मना किया परंतु उनकी प्रबल इच्छा के बाद गुरु ने इसकी विधिवत शिक्षा दी और बाजार से खुद के लिए सुरबहार खरीद कर इस पर रियाज करना प्रारंभ कर दिया। आरंभिक दौर में विभिन्न कार्यक्रमों मंे सितार और सुरबहार दोनों को बजाया करते, बाद में सिर्फ सुरबहार को ही अपना मकसद बना लिया। मेहर घराने के सितार वादक पंडित निखिल बनर्जी से बहुत प्रभावित होने के कारण उनके संगीत पर दलवी ने अपनी पीएचडी की।
रूद्रवीणा का भाई है सुरबहार:
सुरबहार की उत्पत्ति के बारे में बताते हुए डाॅ. दलवी ने कहा कि सुरबहार, देखने में भले ही सितार जैसा लगता हो पर वाद्य और वादन शैली दोनों सितार से काफी अलग हैं। सुरबहार की उत्पत्ति के बारे में भी अलग-अलग मत है। पुराने समय में एक वक्त ऐसा भी आया जब गुरु लोग अपनी कला को लेकर बहुत पजेसिव हो गए थे। वह अपनी कला को अपने परिवार में तो रखना चाहते थे पर शिष्यों में नहीं देना चाहते थे। रुद्रवीणा वादक उस्ताद उमराव खान बीनकार के प्रतिभावान शिष्य थे गुलाम मोहम्मद खान। अपने परिवार की बीन उनको ना सिखाकर उन्होंने उस समय प्रचलित वाद्य ‘कछुआ’ का एक बड़ा रूप निर्मित करके एक नया साज बनाया जिसकी वादन शैली रुद्रवीणा जैसी ही रखी। इस यंत्र को “सुरबहार” नाम दिया गया। दूसरे मत के अनुसार इटावा घराने के उस्ताद साहिबदाद खान ने सुरबहार बनाया। सुरबहार को रुद्रवीणा का भाई भी कहा जा सकता है। इसकी चाल धीर गंभीर और लय विलम्बित होती है. पखावज के साथ संगत में सुरबहार पर ध्रुपद बजाये जाते हैं। सुरबहार में बजने की संभावनाएं रूद्र वीणा से कहीं ज्यादा हैं।
उदयपुर से है पुराना लगाव: